Saturday 4 August 2018

दो कौड़ी

जब बीतते वक़्त के साथ
मैं खर्च होने लगा था, 
और जेबें खाली हो चली थी,
तो मेरे हर खर्चे पर 
तुम सवाल उठाने लगे थे।
मैं आखिर जवाब भी
दूँ, तो क्या दूँ तुम्हे ?
अरे, जब जिंदगी की कीमत
ही कौड़ियों में थी, तो
फिर उनको खर्चने के
बाद, आखिर बचा भी
होता तो क्या होता ?

सपने बुनने के लिए
जब मेरी जेब में रेशम
खरीदने के पैसे नहीं बचे,
तो मैंने फिर जिंदगी
बेचकर, दो कौड़ी में
अपने लिए एक सुकून
वाली कब्र खरीद ली थी ।
दो कौड़ी की इस जिंदगी
को मैंने फिर बख्श दिया,
उसे इस जिल्लत से भी
आज रिहाई दे दी थी। 

पर मैं ये कभी
समझ नहीं पाया कि,
दो कौड़ी की जिंदगी,
असल में,
शायद,
दो कौड़ी से
ज्यादा महंगी थी।

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