उसने पूछा तुम्हारी
इतनी सारी कविताऍं हैं,
एक किताब लिखने का
क्यूँ नहीं सोचते हो ?
मैं कहता,
मैं तो बस हताशा में,
इस जहाँ के बेबाक से
नियमों से, रीति-रिवाज़ों से,
परेशां होकर, हार कर,
उसके सामने घुटने टेक कर,
आत्म-समर्पण करने के बाद,
खुद से चल रहे संघर्ष से
थक कर चूर होने के बाद
ही कुछ लिख पाता हूँ।
जिस दिन मैं इन सब से
थोड़ा ऊपर उठ कर,
जब मुझे इन सब की
या तो आदत हो जायेगी,
या परवाह नहीं होगी,
या फिर जब मैं
वास्तव में खुश
होकर लिखूंगा,
वो दिन होगा, जब
मैं किताब भी लिखूंगा
पर,
आज वो दिन नहीं है,
आज वो दिन नहीं है।