Tuesday 12 June 2018

आज वो दिन नहीं है

उसने पूछा तुम्हारी
इतनी सारी कविताऍं हैं, 
एक किताब लिखने का 
क्यूँ नहीं सोचते हो ?
मैं कहता, 
मैं तो बस हताशा में, 
इस जहाँ के बेबाक से 
नियमों से, रीति-रिवाज़ों से,
परेशां होकर, हार कर, 
उसके सामने घुटने टेक कर,
आत्म-समर्पण करने के बाद,
खुद से चल रहे संघर्ष से 
थक कर चूर होने के बाद 
ही कुछ लिख पाता हूँ। 

जिस दिन मैं इन सब से 
थोड़ा ऊपर उठ कर,
जब मुझे इन सब की 
या तो आदत हो जायेगी, 
या परवाह नहीं होगी, 
या फिर जब मैं 
वास्तव में खुश
होकर लिखूंगा,
वो दिन होगा, जब 
मैं किताब भी लिखूंगा 
पर,
आज वो दिन नहीं है,
आज वो दिन नहीं है।

Wednesday 6 June 2018

निर्णय

एक बहुत कठिन चुनाव
करना पड़ेगा मुझे
और शायद तुम्हे भी,
शायद आज,
शायद कल,
या फिर शायद हर एक दिन।
एक बेहतर कल के लिए
आज शायद मटमैला हो,
पर साफ़ गगन तो
बादलों से भरे हुए
उस काले आसमां के
बरसने के बाद ही आता है।

या तो तुम मेरे इस
कड़वे सच का एक
आखिरी घूँट पी जाओ,
या फिर तुम चाहो तो
मीठे झूठ का मधुमेह
ले जी लो तुम।
मधु की वो बूँदें बहुत
मीठी तो लगेंगी,
पर मधुमेह तुम्हे वो
अंदर ही अंदर और
खोखला करता जाएगा।
निर्णय तुम्हारा है।

कहना तो बहुत कुछ चाहती हूँ
तुमसे और शायद खुद से भी,
तुम जब मुझसे मेरा हाथ
मांगते हो, तो मैं भी
एक पल के लिए ही सही
सब भुला कर तुम्हारे
साथ जीना चाहती हूँ,
तुम्हारे हाथों में हाथ डाले
बारिशों में भीगना चाहती हूँ,
तुम्हारे सिरहाने सर रखके
बेफिक्र सोना चाहती हूँ,
पर मैं ऐसे रिश्ते
नहीं बना नहीं सकती
जिनको मैं निभा ना सकूँ।