Friday 31 August 2018

जाने दो

जाने दो उसको,
आखिर कब तब उन
लम्हो में रहोगे ?
वो लम्हा कब का 
गुजर चुका है। 
कब तक तुम 
उनको थामे बैठे रहोगे,
अरे जाने दो ना,
छोड़ो जो हुआ, 
जाने दो। 

वो जो डोर थी, वो 
दो लोगों को थामनी थी। 
उसने तो अपना सिरा 
यूँही गिरा दिया, 
और तुम हो कि
अभी भी वो 
डोर पकड़े बैठे हो। 
अरे हाथों में
छाले पड़ जायेंगे, 
छोड़ो उस डोर को। 
जाने दो जो हुआ 
छोड़ो,
जाने दो।

आखिर किस बात का डर तुम्हे,
दो कदम आगे तो बढ़ो यहाँ से,
बंधनो से आज़ाद करो खुद को। 
जो बीत गया वो,
जाने दो।
आगे काफी कुछ आएगा,
उनको जरा आने दो,
जो हुआ उसे जाने दो, 
चलो छोड़ो,
जाने दो।

Saturday 4 August 2018

दो कौड़ी

जब बीतते वक़्त के साथ
मैं खर्च होने लगा था, 
और जेबें खाली हो चली थी,
तो मेरे हर खर्चे पर 
तुम सवाल उठाने लगे थे।
मैं आखिर जवाब भी
दूँ, तो क्या दूँ तुम्हे ?
अरे, जब जिंदगी की कीमत
ही कौड़ियों में थी, तो
फिर उनको खर्चने के
बाद, आखिर बचा भी
होता तो क्या होता ?

सपने बुनने के लिए
जब मेरी जेब में रेशम
खरीदने के पैसे नहीं बचे,
तो मैंने फिर जिंदगी
बेचकर, दो कौड़ी में
अपने लिए एक सुकून
वाली कब्र खरीद ली थी ।
दो कौड़ी की इस जिंदगी
को मैंने फिर बख्श दिया,
उसे इस जिल्लत से भी
आज रिहाई दे दी थी। 

पर मैं ये कभी
समझ नहीं पाया कि,
दो कौड़ी की जिंदगी,
असल में,
शायद,
दो कौड़ी से
ज्यादा महंगी थी।