Wednesday 25 March 2020

शहर

शहर ये मेरा इतना तंग क्यों है
शहर का मेरे आज ये रंग क्यों है
यहाँ मकानों से चिपके मकान ऐसे
कि जैसे दो प्रेमी जोड़े हों
जिनके बीच कोई न आ सके
पर खिड़की खोलूं तो
सूरज नहीं दिखता
रौशनी का एक कतरा भी
नसीब नहीं होता
शहर ये आज मेरा
इतना तंग क्यों हैं

इस शहर में मुझे फलक का दीदार
होता भी है और, नहीं भी होता
जब बिजली चली जाती है
और मैं अपने घर की
आधी बनी छत पर सोता हूँ
तो सितारों भरा आसमां दिख तो जाता है
पर जब यूँ ही घर से बाहर निकलता
तो बिजली के तारों से
वही आसमां ढक जाता है
आखिर शहर ये मेरा
इतना तंग क्यों हैं

आज चौराहे पर भरे बाजार में
जब इंसानियत का इंतक़ाम हो रहा
तो फिर, शहर ये मेरा अपंग क्यों है
आज गगन नील नहीं लहू से
पटा सा जान पड़ता है
और, शहर ये मेरा पूछता ये रंग क्यों है
आज जब फैसले सारे
कागज और कलम से होने थे
तो, शहर ये मेरा पूछता ये जंग क्यों है

आखिर शहर ये मेरा तंग क्यों है
आखिर शहर ये मेरा तंग क्यों है 

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