Sunday 25 March 2018

क्या मज़ाक है

अरे ये क्या मज़ाक है
बेमतलब बेबाक सी
ये ज़िंदगी है जो
बस चली जा रही है
ये हवा है जो
बहे जा रही है
ये लब्ज़ हैं जो
खोये जा रहे हैं
अरे अरे अरे
ये क्या मज़ाक है

ज्येष्ठ-बैसाख की गर्मी
और ये सूरज आज
गीले आँखों को
सूखा रहा है
या सूखे बंज़र मन
को ये और भी
जला रहा है
कुछ पता ही नहीं
चल रहा मुझे
अरे देखो न
अरे क्या मज़ाक है

आज भी बांसुरी
तुम्हारी वहीं रखी है
काठ की उस बांसुरी
में दीमक लग गयी
तुमने उसकी हिफाज़त
करने के बजाय
नयी खरीद ली
अरे ये कैसा जूनून है
अरे ये क्या मज़ाक है 

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