Monday 12 March 2018

कहीं खो गयी है वो

कहीं खो गयी है वो लौ,
दीये और लालटेन की बत्ती
जलाने वाली वो लौ
कहीं खो गयी शायद
मैं ढूंढता हूँ
उस एक लौ को,
वो लौ कहीं नहीं मिलती
बिना उस लौ के
एक अँधेरा सा लगता है,
वो लौ खो गयी कहीं

लौ नहीं है तो, अब मैं
सितारों भरे उस आसमान
के नीचे लेट जाता हूँ
अँधेरा किसको पसंद है,
उजाला उतना तो नहीं
जितना उस लौ से था
पर, कुछ न होने से
अच्छा कुछ होना है
बिना उस लौ के
एक अँधेरा सा लगता है,
वो लौ खो गयी कहीं

क्या वो लौ अब भी
उतनी ही जगमग होगी ?
क्या कहीं तूफां के झोंकों में
वो लौ अब भी जलती होगी ?
पर, वो लौ तो मैंने शायद
कभी जलाई ही नहीं
वो लौ जो मेरी
कभी थी ही नहीं
शायद जिसका वजूद नहीं
उसका खो जाना ही अच्छा है
वो लौ खो गयी कहीं
पर,
ठीक है,
ठीक है,
ठीक है। 

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