Wednesday 7 February 2018

पसंद नहीं

मुझे मेरे नाम से मत पुकारो,
मुझे मेरा नाम पसंद नहीं
मेरे नाम के वो अक्षरों की
चुभती आवाज़ पसंद नहीं
वैसे तो मेरे घर के आगे मेरा नाम
लिखा है, मुझे मेरा घर पसंद नहीं
मेरी किताब के दाईं कोने पर
मेरा नाम लिख दिया मैंने,
मुझे मेरी किताब पसंद नहीं
नाम तो तुम्हारी चिट्ठी पर भी था
मेरा, पर मुझे अब तुम पसंद नहीं

जब शामियाने में बैठ गुजरे
कल के पन्ने पलट रहा था
तो मुझे एक मैं मिला
पर वो कोई और था
वो मैं नहीं था
नाम तो वही था मेरा
पर मैं अब मैं न था
वक़्त के साथ साथ
वक़्त की एक परत
चढ़ गयी थी मुझपे 
अब तो जैसे ऐसा था
कि मुझे मैं पसंद नहीं

ऋतू जब वसंत वाली थी
तो कलियाँ खिलने लगी थी
बगीचे में टिकोले भी आने लगे
पर बगीचे में कोई नहीं आया
मैं यूँ तो बगीचे का माली था
पर वो बगीचा खाली था
बरसो पहले लगाया वो झूला
सबा से आज भी झूल रहा था
मैं वहां कोने में बैठ चुपके से
अपना नाम भूल रहा था
बगीचा तो आज भी वहीँ है 
पर मुझे अब बगीचे में नहीं जाना
मुझे मेरा बगीचा पसंद नहीं

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