ये जो इतवार आया आज
तो जैसे सुकून का झोंका गया कोई
ये रफ़्तार भरी जिंदगी में
जैसे ठहराव आया एक
भागते भागते कोई शांत सा
एक मोड़ आया हो जैसे
क्या, रखा क्या है जनाब
इस, बस इक इस दिन में
आखिर ख़ास क्या होता है
ये एक इतवार
जिंदगी तो बाकी दिन भी
बस, जी ही लेते हैं
ये वाकये, ये तसादुम
वे हादसे, वे तबस्सुम
हर दिन तो गुफ़्तगू होती है
फिर आज ये नन्हा सा इतवार
आखिर इतराता है क्यों
शायद वक़्त में पीछे जाना होगा
सवालो के जवाबो के वास्ते
बचपन में कैसे वो हर दिन
बस्ता लेकर निकल पड़ते थे स्कूल
इतवार को तो पर ,हाँ
इतवार को नहीं जाना होता था
सारा दिन बस माँ के हाथ का खाना
और धमा-चौकड़ी मचाना
शनिवार रात दूरदर्शन पर
सिनेमा का बेफिक्र आनंद
सुबह देर से जागना
और पूरे दिन टीवी देखना
पर ये कमबख्त होमवर्क
शाम होने तक डरा देती थी
आज क्या बदला है बरखुरदार
स्कूल की जगह ऑफिस है
बस्ता वही है, बस्ते के अंदर
बस कागजात बदल गए
खाना भी माँ के हाथ का नही है
वो धमा-चौकड़ी भी खो गयी
देर से जागते तो हैं, पर
क्यूंकि रात को काम था
पूरे दिन टीवी की जगह
अब लैपटॉप ने ले ली है
शाम को अब डर नहीं लगता
आदत हो गयी है ना अब
आदत हो गयी है
इस मेहमान इतवार की
आओ, आओ इतवार
आओ
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