Saturday, 31 July 2021

बस जिंदगी यही है

कुछ बातें कही हैं,
कुछ अनकही है,
जो है,
बस जिंदगी यही है | 

कभी गलत है,
और कभी सही है,
जो है,
बस जिंदगी यही है | 

खाता है, बही है,
जो है,
बस जिंदगी यही है | 

टूट चुकी इस कलम में 
बाकी अब भी थोड़ी स्याही है,
पर फिर भी जो है,
बस जिंदगी यही है | 

जब तलक है,
यही है,
उसके बाद तो 
फिर कुछ भी नहीं है | 

Sunday, 15 November 2020

दीवाली

कल दीवाली थी,
आज दीवाली के बाद की सुबह है | 
दीवाली के बाद की वो सुबह, 
जब दीये बुझ चुके होते हैं, 
फर्श पर दीयों से रिसता हुआ तेल लगा होता है,
मोमबत्तियां पिघल चुकी होती हैं, 
धूप बत्ती जलने के बाद बस राख बची होती है,
रास्ते पटाखों के फर्रों से पटे होते हैं,
रसोईघर में मिठाई के खाली डब्बे फैले होते हैं, 
पकवानों के बर्तन खाली पड़े होते हैं,
दोस्त रिश्तेदार जा चुके होते हैं,
एक ख़ामोशी होती है,
अजीब सी एक ख़ामोशी | 

अखरती तो आखिर, 
दीवाली की अगली सुबह है | 

कल दीवाली थी,
बीत गयी, अच्छी गुजरी | 
अब जो दीवाली ख़त्म हो गयी,
दीये सारे बुझ गए, 
तो बताओ, आखिर
अंधकार पर रौशनी की
जीत हो पायी कि नहीं ?

Monday, 26 October 2020

किताब

किताबों में मेरी एक दुनिया है, 
जो बस चंद अक्षरों के दरम्यां है | 
किताबों से निकलते कितने अल्फ़ाज़ हैं, 
किताबों में फिर छुपे कितने राज़ हैं 

जिंदगी जीना हो तो, 
किताबों के माफ़िक़ जीना | 
किताबों में बस कहानियां जुड़ती हैं, 
लिखी बात कभी वापस नहीं होती | 
जिंदगी में जो भी किया, 
कभी वो वापस नहीं होना चाहिए | 
जिंदगी के किसी पन्ने का 
अफ़सोस नहीं होना चाहिए | 

पर जिंदगी कभी अगर
खाली किताब पकड़ा दे,
तो उसमें कहानी लिखने मत बैठ जाना,
कहानियां पढ़ना जरूर पर | 
असली कहानी लिखी नहीं 
जी जाती है बस | 

तुम जिस किताब में
किसी और की कहानियां पढ़ रहे हो, 
वो किताब उसने नहीं
किसी और ने लिखी है | 
तुम्हारी कहानी लिखने वाले भी 
हज़ारों मिलेंगे |  
बस, कहानी ऐसी रखना कि
किताब लिखने वाले के पास
वक़्त कम पड़ जाए | 

Sunday, 6 September 2020

दिन-रात

दिन दिन होता है ,
और रात रात होती है | 
क्या करूँगा मैं, जब
दिन और रात का अंतर मिट जाए ?
जब दिन भी अंधेर हो जाए 
या, फिर रात भी उज्ज्वलित हो उठे ?
क्या करूँगा मैं तब ?
आप क्या करेंगे ? 

जब, 
रात के वो ढाई बजे वाले ख्यालात, 
दिन के दूसरे पहर में, 
तल्खी सी डेढ़ बजे वाली 
धूप में चुभने लगे,
तो तुम ही बताओ, क्या 
महसूस करूँअब मैं, 
अच्छा हुआ या बुरा?

जब 
गर्मी की छुट्टियों के दिनों वाली 
दुपहरी की खामोशी 
रातों को भी अखरने लगे 
तो तुम ही बताओ, क्या 
महसूस करूँअब मैं, 
अच्छा हुआ या बुरा?

अच्छा,
यूँ की रात अब अकेली नहीं 
उसे दिन का सहारा मिल गया है, 
रात सहम नहीं जायेगी यकायक | 

बुरा, 
यूँ कि पहले अमां, 
कम से कमएक वक़्त का तो चैन था, 
अब तो दिन रात दोनों चौपट हो बैठे | 

Sunday, 2 August 2020

शीशमहल

आओ,
स्वागत है तुम्हारा 
मेरे शीशमहल में | 
बड़ी ही सुन्दर, 
बड़ी ही नाजुक, 
मेरे आलीशान शीशमहल में | 

इस महल के चारों दीवारों में 
बस मेरा ही प्रतिबिम्ब है, 
मुझे खुद की आवाज 
गूँजती सुनाई देती है |  
मैंने खुद को खुद की 
बेड़ियों का कैदी बना रखा है | 
इस महल से बाहर जाना 
मुझे गवारा भी नहीं, क्यूँकि 
बाहर जाने वाली राह पर 
मुझे मैं नहीं दिखता हूँ | 
मुझे मेरा ये शीशमहल 
जैसे लील गया है,
हाय, ये मेरा 
रहयस्यमयी शीशमहल | 

जीवन भी तो एक शीशमहल ही है,
इसकी दीवारों से बस 
एक तरफ़ा दीदार होता है |  
मैं अपने बाहर देख सकता हूँ, 
पर, तुम मेरे अंदर नहीं देख सकते, 
मैं खुद अपने अंदर नहीं देख सकता | 
क्या फायदा ऐसी दीवारों का ? 
क्यूँ रहूँ मैं ऐसे शीशों में क़ैद ?
टूट जाने दो इसे, 
कम से कम शीशे से बाहर 
मैं आज़ाद तो उड़ सकूँ | 

मैं काँच की दीवारों पर 
हाथों से वज्र प्रहार करता हूँ, 
जब इसे तोड़ नहीं पाता मैं, तो,
जोर जोर से अपना सर भी पीटता हूँ | 
खुद के खूं में सराबोर, 
खुद के चोटिल लोथड़े से घिरा,
दम घुटने लगा है, 
सांस रुकने लगी है, 
पर, ये मेरा शीशमहल 
ना ही टूटता है 
और,
ना ही मेरा इससे साथ छूटता है | 
ये विचित्र मेरा शीशमहल | 

महल के बाहर लोगों का जमावड़ा है, 
लोग उत्सुकता से मुझे देखते 
बस गुजरते जा रहे हैं | 
शीशे के पीछे से मैं उन्हें 
एक झूठी तस्वीर दिखा रहा हूँ | 
सच तो ये है कि, हम 
झूठ की बिसात पर ही 
अपनी जिंदगी जीते आये हैं | 
एक माया है ये शीशमहल,
ये शीशमहल तो केवल 
एक दिखावा है | 

जाओ,
चले जाओ 
मेरे शीशमहल से | 
बड़ी ही बदसूरत,
बड़ी ही कुटिल, 
मेरे शीशमहल से | 

Tuesday, 23 June 2020

जिंदगी

जिंदगी
कभी खुशियों से नहीं बनती,
परेशानियों और
उलझनों से बनती है |
जिस लम्हे आप खुश नहीं होते हैं ,
वो पल आपकी जिंदगी के
रंग-रूप और रस्ते तय करते हैं |

जब खुश होते हैं,
तब नहीं सोचते
ये कैसे हुआ |
पर, जब खुश नहीं होते
तब सोचते हैं,
कहाँ क्या बिगड़ा,
कैसे मैं जिंदगी के इस
मोड़ पर आ खड़ा हुआ हूँ |
और उस एक लम्हे में फिर
आप अपनी जिंदगी
तय कर लेते हैं |

जिंदगी आखिर इतनी कब
उलझ गयी कि, अब
इसमें खुशी ढूंढनी पड़ती है,
और वो भी वहां से
जहाँ उसका घर भी नहीं है |
ख़ुशी क्यूँ हमेशा नहीं रहती ?
क्यूँ कमल की राह
कीचड़ से निकलती है ?

Sunday, 21 June 2020

भीड़

भीड़ का हिस्सा मत बनो 
भीड़ के पीछे भागने वाले  
भीड़ में ही गुम हो जाते हैं 
भीड़ में किसी की कोई 
फरीद पहचान नहीं होती 
उसकी अपनी एक पहचान होती है 
पर तुम्हारी कोई शनाख्त नहीं होती 

भीड़ का हिस्सा मत बनो 
भीड़ से केवल कोरोना जैसी
भयानक बीमारियां फैलती हैं 
भीड़ से कभी कोई
अच्छी चीज नहीं आती 
भीड़ के पीछे मत भागो 

भीड़ का युद्ध,
ना ही कर्म युद्ध होता है,
और ना ही धर्म युद्ध 
जिस युद्ध में धर्म और कर्म 
दोनों ही नदारद हो,
उस युद्ध के सैनिक मत बनो 
भीड़ का हिस्सा मत बनो 

Friday, 22 May 2020

एकत्व

कोई अर्थ नहीं, किसी 
और के स्तित्व का यहाँ | 
एक ये मेरा जीवन है, 
और, ये एकमात्र 
मेरा एकत्व है |

ऊपर कौन भगवान,
और, नीचे कौन शैतान,
कुछ मायने नहीं 
किसी के भी यहाँ | 
कुछ है तो, 
मिला जुला कर 
मैं ही हूँ बस |
कोई और नहीं यहाँ ,
बस एक मैं हूँ 
और एक मेरा एकत्व है |

ये सभ्यता समाज,
ये दोस्त परिवार ,
सब क्षणिक हैं |
ये रंग रूप, 
ये दौलत शोहरत, 
सब सामयिक हैं | 
जो कुछ अक्षय है, 
वो एक मैं हूँ बस | 
एक मेरा जीवन है, 
और एक ये मेरा एकत्व है |

Sunday, 17 May 2020

वक़्त वक़्त की बात

वक़्त वक़्त की बात है,
कल जो खुदा था,
आज वही जुदा है |
बस वक़्त वक़्त की बात है |

कल जिन टूटी पलकों को
हाथों पर रख कर,
आँखें मूँद कर,
दुआएं माँगा करते थे,
और फिर हलके से फूँक कर
जिन्हे हम उड़ा देते थे,
आज वही टूटी पलकें
आँखों में चुभती हैं,
और मैं फिर से
उन्हें फूँक लगा कर
उड़ा देता हूँ |

वक़्त वक़्त की बात है,
कल जो दुआ थी हमारी,
आज वही दवा का सबब है |
बस वक़्त वक़्त की बात है | 

Monday, 27 April 2020

कविता

जब किसी की कविता सुनता हूँ मैं,
तो वाहवाही नहीं देता उनको |

ये एक ऐसी चीज है जो
आप तय नहीं कर सकते,
ऐसा नहीं होता है कि, चलो
आज एक लिख कर ही मानूँगा |
ये प्यार मोहब्बत सरीके बात है,
बस हो जाती है,
दिल में कोई बात आ जाती है,
और खुद को बयां कर जाती है बस |

जब किसी की कविता सुनता हूँ मैं,
तो वाहवाही नहीं देता उनको |
मुझे मालूम है कि
वो भी किसी दर्द से, या
किसी नाज़ुक वक़्त से गुजर रहे होंगे,
और उस वक़्त ये बात उसके ज़ेहन में आयी होगी |
मुझे मालूम है क्यूँकि,
मैं भी तो ऐसे ही लिखता हूँ |

जब दर्द साझा करने के लिए कोई नहीं होता,
तब ऐसे ही पन्नों के साथ बातें बाट लेता हूँ |
कभी पुराने पन्ने पलट कर देखता हूँ,
तो हैरानी भी होती है,
और ताक़त भी महसूस होती है,
कि कल क्या माहौल थे, और
आज उन सब से लड़ कर, जीत कर
मैं आगे निकल आया हूँ |
तुम साथ नहीं तो क्या गम है,
उन पन्नों के साथ ही सही,
मैं तुम्हारे हिस्से का भी इश्क़ जी आया हूँ |

जब किसी की कविता सुनता हूँ मैं,
तो वाहवाही नहीं देता उनको,
बस मुस्कुरा देता हूँ हल्के से |
और, पलकें नम हो जाती हैं
तो, रोकता नहीं खुद को,
बस सर उठा कर जी लेता हूँ हल्के से | 

Wednesday, 25 March 2020

जहर का प्याला

तुमने अपने हाथों में जो
थाम रखा है, वो
जहर का प्याला है |
जिस पल वो ज़हर
तुम्हारे लबों में लगेगा ,
उस पल में फिर
चाहे तुम समुद्र मंथन का
अमृत ही क्यों न पी लो,
तुम्हारी मृत्यु निश्चित है |

आखिर,
ये तुम्हारा निर्णय है |
तुम चाहो तो,
उस प्याले को
नकार सकते हो |
प्यास से सही, पर
तुम्हारी मृत्यु निश्चित है |

अगर जीवन से इतना ही
मोह है तुम्हें,
तो सुनो,
तुम खुद के लिए
नया प्याला क्यों
नहीं ले आते हो ?  

मुहूर्त

तुम क्या बात करते हो ?
तुम ये क्या सही समय का
इंतज़ार करते हो ?
तुम ये क्या पंडितों से,
तुम ये क्या मौलवियों से,
ये मुहूर्त ढूढ़ते फिरते हो ?
तुम ये क्या सही समय का
इंतज़ार करते हो ?

तुम इंसान हो, या
फिर तुम शैतान हो,
या कोई जीव जान,
ना तुम्हारा जन्म
मुहूर्त देख कर हुआ था,
ना तुम्हारी मृत्यु
मुहूर्त देख कर होगी |

जब ये पूरी कहानी
बस जीवन और मृत्यु के
दरम्यां ही सिमटी है,
तो फिर आख़िरकार,
तुम ये क्या सही मुहूर्त का
इंतज़ार करते हो ?

शहर

शहर ये मेरा इतना तंग क्यों है
शहर का मेरे आज ये रंग क्यों है
यहाँ मकानों से चिपके मकान ऐसे
कि जैसे दो प्रेमी जोड़े हों
जिनके बीच कोई न आ सके
पर खिड़की खोलूं तो
सूरज नहीं दिखता
रौशनी का एक कतरा भी
नसीब नहीं होता
शहर ये आज मेरा
इतना तंग क्यों हैं

इस शहर में मुझे फलक का दीदार
होता भी है और, नहीं भी होता
जब बिजली चली जाती है
और मैं अपने घर की
आधी बनी छत पर सोता हूँ
तो सितारों भरा आसमां दिख तो जाता है
पर जब यूँ ही घर से बाहर निकलता
तो बिजली के तारों से
वही आसमां ढक जाता है
आखिर शहर ये मेरा
इतना तंग क्यों हैं

आज चौराहे पर भरे बाजार में
जब इंसानियत का इंतक़ाम हो रहा
तो फिर, शहर ये मेरा अपंग क्यों है
आज गगन नील नहीं लहू से
पटा सा जान पड़ता है
और, शहर ये मेरा पूछता ये रंग क्यों है
आज जब फैसले सारे
कागज और कलम से होने थे
तो, शहर ये मेरा पूछता ये जंग क्यों है

आखिर शहर ये मेरा तंग क्यों है
आखिर शहर ये मेरा तंग क्यों है 

Saturday, 23 March 2019

कभी नहीं

मेरी डायरी के वो सूखे मुरझाये फूल
जो मैंने कभी तुम्हे दिए ही नहीं

वो छत के कोने में रखी टूटी कुर्सी
जिसपे हम कभी साथ बैठे ही नहीं

वो छज्जे पर छुपा कर रखे पटाखे
जो हमने दिवाली में कभी जलाये नहीं

वो अलमारी में कपड़ो के तह के नीचे छुपाये खत
जो मैंने कभी हाथों में रख कर पढ़े ही नहीं

वो दिल में रखी एक बात
जो कभी मैंने तुमसे कही नहीं

वो तुम्हारे साथ वाली एक जिंदगी
जो शायद मैंने कभी जी ही नहीं 

Sunday, 10 February 2019

False Ink

I write,
Because I’m addicted to.
Sometimes poetry,
Sometimes stories,
Or sometimes, just some random
Articles to help you figure out
Rights and wrongs of life.
I fill up my pen with Ink,
I don’t talk much,
I let my Ink do the talking.
I fill up the paper with this Ink.
I write,
Because I’m addicted to.

What do you think,
Why do I write?
Because I go through
All this in my life?
No, you are mistaken.
I write,
Just to entertain myself.
I live a life full of
Imaginations.
I write,
Because I’m addicted to.

This Ink that I’m
Pouring into my pen,
Don’t try to find traces
of truth in there.
I have invented a false Ink.
The Ink which takes me away,
From all the bitter truths
Of this cruel world.
I write false stories,
I write with a False Ink.
I write,
Because,
I’m addicted to.

You won’t stop reading,
If I write with false Ink,
Will you?

झूठी स्याही

मैं लिखता हूँ,
आदत है लिखने की।
कभी कविताएं,
तो कभी कहानियाँ,
कभी कभी तो बस,
ऐसे ही सही गलत
तुम्हे समझाने के बहाने,
कुछ लिख लेता हूँ।
मैं कलम में स्याही भरता हूँ,
मैं स्याहियों में बातें करता हूँ,
मैं स्याही से लिखता हूँ।
मैं लिखता हूँ,
आदत है लिखने की।

तुम्हें क्या लगता है,
क्यों लिखता हूँ मैं?
क्यूँकि मैं इन
सब से गुजरता हूँ ?
नहीं, मैं तो बस यूँ ही
मन बहलाने के लिए
लिखता हूँ।
मैं कल्पनाओं से सराबोर
एक जिंदगी जीता हूँ,
मैं लिखता हूँ,
आदत है लिखने की।

ये जो कलम में मैं 
स्याही भर रहा हूँ, 
उसमे सच का कतरा 
मत ढूंढो तुम। 
मैंने एक झूठी 
स्याही बनाई है,
वो स्याही, जो मुझे 
दुनिया के कड़वे सच 
से दूर ले जाती है। 
मैं झूठ कहानियां लिखता हूँ, 
मैं झूठी स्याही से लिखता हूँ ,
मैं लिखता हूँ,
क्यूँकि,
आदत है लिखने की।

झूठी स्याही से लिखूंगा
अगर, तो
पढ़ना बंद नहीं कर दोगे न ?

Saturday, 9 February 2019

Abomination

Don’t call me by my name,
I don’t like my name.
Those piercing sounds of my name,
I don’t like that.
Though I’ve a name plate
On my door,
But, I don’t like my home.
On the top right corner of book,
I had written my name,
To state the ownership of it
I don’t like my book anymore.
My name was written on letters too,
That I had written to you
Now, I don’t like you either.
Sitting under the roof,
On a fine evening,
When i was turning pages
of yesterday,
I found one of me,
But, it wasn’t me.
Names hadn’t changed,
But probably I had.
With passing time,
I kept on wearing
A new layer of time,
Now, it’s like
I don’t like myself either.
When spring came,
New leaves sprouted,
Mango groves welcomed
Baby mangoes on-board ,
But, no one came to my garden.
That swing which we had set
years ago, in centre of our garden,
That’s empty,
Swinging with the breezes.
I was sitting in the corner,
Trying to forget our names.
That garden is still there,
I don’t like going there,
I don’t like myself either.

In Between

Beyond this side of life and,
Ascending the other side of life,
Between those two ends,
There was another city,
Hidden in plain sight.
The city, which
everyone had gone to,
But, nobody had visited it.
A life, that everyone had lived
But, nobody had lived it.
From this side of life,
With you on my side,
To that side of life,
without you on my side.
In between,
There were countless efforts
To be with you,
For us to be together.
How long were we together?
We were not even together.
From this side of life, having you,
To that side of life, not having you,
Maybe, I have had set aside
Something in my life too.
Beyond the sights of
That glaring sun
Hitting right in the eyes,
And, preceding the sights of
Pitch dark black clouds,
There were few more moments,
Moments of thunders,
Moments of lightning bolts,
The lightning, that
Everyone had seen,
But, nobody had seen it,
In a life that everyone had lived
But, nobody had lived it.

Never together

You be the night,
I'll be the day.
We'll never be together.
But, when you'll be about to leave,
And, I'll be about to arrive,
Or, when I'll be about to leave,
And, you'll be about to arrive,
In those mornings and evenings,
We'll meet for sure.
And in that silence,
It will make such beautiful noise,
That this world would
Never have witnessed before.
You be the ground,
I'll be the sky.
Between us, there will be
Distances of earth and sky.
But, we'll meet on the horizon.
Believe me, we'll meet for sure.
And, this world will be amazed,
To witness our meeting.
They'll paint pictures of that,
So mesmerising and beautiful
That this world would
Never have seen before,
Never have witnessed before.
On that horizon,
When that setting sun
will meet the rising moon,
Or, that setting moon
Will meet the rising sun,
And ask "how are you"
"It’s been so long since we met"
This world will be beautiful again.
We’ll meet only for moments,
But, we won’t be together
We’ll never be together.

Sunday, 20 January 2019

Interpretation

I have to express myself,
To you, it's long due.
But, I don't know how.
You are far away,
Across oceans and horizons.
How do I say it to you?

I am afraid to use words,
I am afraid to say something,
When I am not around you.
I love words,
Probably, words are the only thing
keeping us together.
But, this distance..
What if, words get jumbled,
Travelling across continents ?
What if, it's not exactly
What I want to say ?
What if, you interpret
Words differently?
I am afraid
Because I know,
A poem has
Thousands of interpretations.

On the other hand,
I know you will get it right
You will pick the right meaning,
Like you always do.
Isn't that only reason
I choose to write this?
Isn't that the only reason
I want to express myself?
To you.

But, again.
I don't know,
How will
you
interpret this.

Sunday, 6 January 2019

Destiny

I was counting on my destiny,
but, destiny was counting on me.
I hoped for a miracle,
that,
fortunes will turn around,
probably one fine day.
I kept on counting on fortune,
but, fortunes?
Well, they were counting on me.

Breezes came, 
they kissed the leaves.
Regardless, 
leaves counted on nature, that, 
a change of seasons would revive them.
Their story was written on leaves,
their story was counting on leaves,
But, leaves?
Well, they were counting on seasons.

Ages passed by, 
staring at these palm lines,
some are thick, 
some are thin,
some are straight, 
some curved or tangled.
It’s been so long that,
the lines are fading away now
You were counting on me,
but, me?
Well,
I was counting on my destiny.

Wednesday, 21 November 2018

When I realized that I’ll have to live

It was a Tuesday night, when I was turning all over floor with excruciating pain. It definitely wasn’t a life threatening one and this is not a comparison with pain any of you have endured. But, in that moment, when I looked around with eyes full of pain, I knew one thing, that if these were my last moments, I would definitely be regretting the way I have led my life. Living a measured life, not exploring the world enough, failing to express my feelings towards her, not pursuing my childhood passion, not challenging myself enough, these were just couple of things that crossed my mind at that moment. For a second or two, there was an adrenaline rush inside me, which made me forget all the pain and made me realize that there’s lot more in this world outside that 2-BHK house, a lot more people, lot more learning, lot more world, and lot more life.
It’s when you see bad times, then you realize what’s the importance of good times. One thing is certain that one day you will run out of good times, run out of people to spend your good times with, run out of people to share your bad times with, or run out of life ultimately. Until we face scarcity of happiness or comfort at some moment, we never know the importance of it. Sometimes, by the time we understand all of it, it’s already too late. While spending the life, most of the people forget to live.
I didn’t want to be one of them, especially after that night.
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Last week, when I was asked to join a trek(about 20 km long), I joined it despite of a back pain. Yes, I was worried about my physical status (which definitely worsened), I joined it because I knew this is where I break my shackles. Hell with what happens to my back pain after that, I had to go, I had to explore the world.
I always wanted to play flute, but could not dedicate enough time. You know what, I am learning it. I wanna learn it like I own it, and not to display something on a stage, but for my own satisfaction.
One day I’ll die, you’ll die too. And, not every one will do something great that whole world will remember them. The aim of life should not be centered about how much money you make, how many people know you, or not even how big of a personality you are. If at the end of the day, you can’t sleep with a smile, then you’ve failed yourself. YES, YOU HAVE FAILED YOURSELF.
So, I’ve made up my mind. There will be many chances to live, and I’ve to grab all of them before its the final one. I’ve realized that I’ll have to live now, before it’s too late. You too should.

Sunday, 28 October 2018

अच्छा लगता है तुमसे बातें कर के

मैं और तुम
कितनी बातें करते थे।
मुझे याद है,
जब भी मैं
परेशान होता था,
या, कोई चिंता
मुझे सताती थी,
मैं किसी और से
कहने में हिचकिचाता था,
मैं तब तुमसे बातें
करता था,
क्योंकि तुम सुनती थी,
तुम मुझे समझती थी।

अच्छा लगता था, मुझे
तुमसे बातें कर के।
अच्छा लगता है, मुझे
तुमसे बातें कर के।
जब कुछ नहीं होता था,
तो मैं बिना सोचे समझे
जिंदगी के किसी गहरे मुद्दे
पर तुमसे बात छेड़ देता था।
पर, कई दिनों से तुमसे
ऐसी कोई बात नहीं हुई।

एक दिन मैंने उससे पूछा,
काफी दिन हो गए,
हमारी ऐसी कोई बात नहीं हुई ?
उसने कहा, चलो अच्छा है
लगता है जिंदगी की सारी
उलझनें सुलझ गयी हैं।
फिर, जब मैंने उससे पूछा
कि क्या तुम्हे याद है,
आखिरी बार कब परेशान थी तुम ?
उसने कहा "नहीं, पर आज नहीं"।
और उस एक पल में मुझे
फिर से याद आ गया,
कि, क्यों
अच्छा लगता है मुझे
तुमसे बातें कर के। 

Tuesday, 23 October 2018

अग्नि

ये वही आग है जिस पर
कल मैंने लकड़ियाँ जलाई थी,
खाना बनाया था,
पर, ये वो आग भी है
जिस पर, वक़्त आने पर 
कल तुम मेरे मृत शरीर को
भी जला डालोगे।
ये अग्नि एक ओर जहाँ
एक बेजान से शरीर
में जां भर सकती है,
तो, दूसरी ओर जान
लेने में भी उसे
वक़्त नहीं लगता।

हम जिस चीज के पीछे
पूरी जिंदगी भागते हैं,
वो हमें एक न एक दिन
बर्बाद कर ही देती है,
पर, हमारी बर्बादी
हमें जीने का मक़सद
भी तो देती है। 
अगर कभी कुछ
बिगड़ा ही नहीं,
तो ये जिंदगी का क्या मज़ा।

मैं आग से डरता तो था,
पर, मुझे उसकी जरूरत
भी उतनी ही थी।
मैं धीरे धीरे समझ रहा था, कि 
ये आग जलती रहनी चाहिए,
ये ज्वाला धधकती रहनी चाहिए,
ये लौ जगमगाती रहनी चाहिए,
ये मसाल बुझनी नहीं चाहिए,
ये अग्नि कभी,
धूमिल नहीं होनी चाहिए। 

Monday, 8 October 2018

आज़ाद बंधन

मैंने राहत की एक
लम्बी सी साँस ली,
मुझे लगा था मैं शायद
उस दिन जीत गया था।
उस पल में मैं
मुस्कुराया था, और,
सच कहूँ तो उस
मुस्कराहट में बहुत
खुश था मैं।
वैसे तो पल भर के लिए
मैं सही था, पर,
ये जिंदगी पल भर से
थोड़ी ज्यादा लम्बी थी।

उस दिन जब
लिखने बैठा तो,
समझ नहीं आ रहा था
किस बारे में लिखूं।
सोच विचार में मैं
बस कलम चबाए
जा रहा था,
मैं निर्णय नहीं कर
पा रहा था।

दिल तो कह रहा था
मैं आज़ाद हो गया
पर, मुझे वो झूठ लगा
अभी भी कहीं तो
मेरे पाँवों की बेड़ियाँ
झनक कर मुझे
आज भी रोक रही थी।
मैं आज़ाद था
पर, आज़ादी नहीं थी।
मुझे बांधता हुआ
एक बंधन था कहीं,
एक बंधन था,
एक बंधन,
आज़ाद बंधन,
हाँ, शायद,
उसका नाम यही था,
आज़ाद बंधन,
आज़ाद बंधन,
आज़ाद बंधन।

Saturday, 29 September 2018

Where the sidewalk ended

There’s a place
Where this sidewalk ends,
And the street begins,
Where the grass sprouts
soft and tender to the naked feet,
Where sun is hitting the river,
reflecting the skyline
And where,
the birds lay down,
they rested,
Where the sidewalk ended.

Why not,
leave this place,
where the smoke burns black.
Let us come out of here,
where skyscrapers cover the skies.
Let us run from here
to, where rivers meet lands.
Let us go,
where this sidewalk ends.

When this sidewalk is over,
I’ll take you to the benches,
On the banks of that river,
below that stone bridge,
we will see the century old ruins,
on other side of sidewalks.
Can we please not come back?
Can we leave the sidewalk,
and act like sidewalk ended.
But probably we will never know
Where the sidewalk ended.

जहाँ सड़क ख़त्म होती है

ऐसी कोई जगह तो होगी,
जहाँ ये सड़क ख़त्म होगी,
जहाँ मैं गलियों से मिलूंगा,
जहां नंगे पैरों से,
मखमली घास पे पड़ी
ओस की बूँदें बातें करेंगी,
जहाँ नदी से छितरा कर
सूरज की किरणें
आँखों में आ लगेंगी,
जहाँ शाम को पंछी
थक कर आ रुकेंगे,
ऐसी एक जगह तो होगी,
जहाँ ये सड़क ख़त्म होगी। 

चलो यहाँ से चलते हैं,
यहाँ धुंए से आसमां
स्याह हो चला है,
यहाँ इमारतों से
आसमान ढक गया है.
चलो यहाँ से,
वहां, जहाँ
नदियां जमीं से मिलती है,
जहाँ ये सड़क ख़त्म होती है।

जब से सड़क ख़त्म हो जाएगी,
तब मैं तुम्हें उस नदी के
किनारे पर ले चलूँगा,
बेंच पर बैठ कर दोनों,
पुल के नीचे से
सड़क से उस पार के
सदियों पुरानी
इमारतों को निहारेंगे,
दोनों दिलासा देंगे
कि वो सड़क
ख़त्म हो चुकी है,
पर हम दोनों को ही
नहीं पता होगा कि 
ये सड़क कहाँ ख़त्म होती है।
चलो वहां चलते हैं
जहाँ ये सड़क ख़त्म होती है।

Sunday, 23 September 2018

You’ll understand



You’ll understand
when you see it.
Dunno why you
keep on saying that?
What if i could never
see you, then what?
Why are you not even 
looking at me?

I cant spend my
entire life waiting,
in front of setting sun,
on the banks of that river,
I can’t keep on
waiting for you.
I have to go now,
It’s getting dark now,
It’s about night.
Would have been better,
had you come.
I wonder if you 
even know,
how am I?
Probably you’ll understand
when you see it.

I wish you’d have come,
once,
before I left.
Had i got a glimpse
of yours,
my soul would have relaxed,
but, leave it,
you’ll understand
when you see it.

तुम समझ जाओगे

तुम जब देखोगे,
तब समझ जाओगे।
पता नहीं तुम हमेशा
ऐसा क्यों कहते हो? 
अगर मैं कभी
देख नहीं पाया तो ?
तुम मेरी ओर
देख क्यूँ नहीं रहे?

मैं पूरी जिंदगी,
डूबते सूरज के आगे,
उस तालाब के किनारे,
तुम्हारे इंतज़ार में
नहीं रह सकता।
मुझे जाना है, अब
अँधेरा होने वाला है।
तुम आ जाते तो,
अच्छा रहता।
तुम्हे क्या पता
मैं कैसा हूँ,
शायद तुम जब देखोगे
तब समझ जाओगे।

एक बार आ जाते
जाने से पहले,
देख लेता तुम्हें
तो,
मन हल्का हो जाता,
पर, छोड़ो,
तुम जब देखोगे,
तब समझ जाओगे। 

Tuesday, 4 September 2018

Don't let go

Don't let go,
You have the time now,
You can pause this moment,
You can live it to fullest.
But, don't assume 
You can live this moment forever,
Don't take it for granted.
Time never stops, time moves.
It moves on.
Don't let go,
Hold on,
Hold on until you can,
Don't let go.

You're the air, 
I'd love to breathe.
You're the vision,
I'd want to seathe.
You're the one who
words can't cover beneath .
But one day, 
that'll be it.
Today isn't that day,
Don't let go,
Hold on,
Hold on until you can,
Don't let go.

Will there be a world,
Will there be a time,
where we'll sit under stars,
together,
admiring the moonlight,
and the countless stars,
just me and you ?
Will there be a world,
Will there be a time,
Where I ask myself
What if I hadn't let you go ?
What if you'd told me
Dont let go,
Hold on to me,
Hold on until you can,
Don't let go?

Friday, 31 August 2018

जाने दो

जाने दो उसको,
आखिर कब तब उन
लम्हो में रहोगे ?
वो लम्हा कब का 
गुजर चुका है। 
कब तक तुम 
उनको थामे बैठे रहोगे,
अरे जाने दो ना,
छोड़ो जो हुआ, 
जाने दो। 

वो जो डोर थी, वो 
दो लोगों को थामनी थी। 
उसने तो अपना सिरा 
यूँही गिरा दिया, 
और तुम हो कि
अभी भी वो 
डोर पकड़े बैठे हो। 
अरे हाथों में
छाले पड़ जायेंगे, 
छोड़ो उस डोर को। 
जाने दो जो हुआ 
छोड़ो,
जाने दो।

आखिर किस बात का डर तुम्हे,
दो कदम आगे तो बढ़ो यहाँ से,
बंधनो से आज़ाद करो खुद को। 
जो बीत गया वो,
जाने दो।
आगे काफी कुछ आएगा,
उनको जरा आने दो,
जो हुआ उसे जाने दो, 
चलो छोड़ो,
जाने दो।

Saturday, 4 August 2018

दो कौड़ी

जब बीतते वक़्त के साथ
मैं खर्च होने लगा था, 
और जेबें खाली हो चली थी,
तो मेरे हर खर्चे पर 
तुम सवाल उठाने लगे थे।
मैं आखिर जवाब भी
दूँ, तो क्या दूँ तुम्हे ?
अरे, जब जिंदगी की कीमत
ही कौड़ियों में थी, तो
फिर उनको खर्चने के
बाद, आखिर बचा भी
होता तो क्या होता ?

सपने बुनने के लिए
जब मेरी जेब में रेशम
खरीदने के पैसे नहीं बचे,
तो मैंने फिर जिंदगी
बेचकर, दो कौड़ी में
अपने लिए एक सुकून
वाली कब्र खरीद ली थी ।
दो कौड़ी की इस जिंदगी
को मैंने फिर बख्श दिया,
उसे इस जिल्लत से भी
आज रिहाई दे दी थी। 

पर मैं ये कभी
समझ नहीं पाया कि,
दो कौड़ी की जिंदगी,
असल में,
शायद,
दो कौड़ी से
ज्यादा महंगी थी।

Tuesday, 3 July 2018

ऐसा पहली बार नहीं था

सुबह सुबह एक ख्याल से
आज मेरी नींद खुल गयी। 
ऐसा नहीं था कि मैंने फिर
सोने की कोशिश नहीं की,
पर नींद नहीं आती थी। 
मैं शायद फिर सोना ही
नहीं चाहता था। 
मुझे डर लगने लगा था,
सोते वक़्त आने वाले
उन सपनों से।
ऐसा पहली बार नहीं था,
पहले भी हो चुका था।

मुझे पता था मैंने जो
किया, वो गलत था,
मैं शायद सही कर
तो सकता था पर,
मैंने उसे टाल दिया था, 
ये सोचकर कि मेरे
अभी पास वक़्त है।
ऐसा पहली बार नहीं था,
मैं पहले भी ऐसा कर चुका था।

पर, इस बार मैं गलत था
मेरे पास वक़्त नहीं था।
बहुत देर कर दी
इस बार, बहुत देर।
वो चले गए फिर।
मैंने अपनी डायरी में
सब लिख तो दिया था,
पर,
किसी को कभी कुछ कहा नहीं।
ऐसा पहली बार नहीं था,
पहले भी मैं ऐसा कर चुका था।
शायद मुझे ऐसा
नहीं करना चाहिए था। 

Tuesday, 12 June 2018

आज वो दिन नहीं है

उसने पूछा तुम्हारी
इतनी सारी कविताऍं हैं, 
एक किताब लिखने का 
क्यूँ नहीं सोचते हो ?
मैं कहता, 
मैं तो बस हताशा में, 
इस जहाँ के बेबाक से 
नियमों से, रीति-रिवाज़ों से,
परेशां होकर, हार कर, 
उसके सामने घुटने टेक कर,
आत्म-समर्पण करने के बाद,
खुद से चल रहे संघर्ष से 
थक कर चूर होने के बाद 
ही कुछ लिख पाता हूँ। 

जिस दिन मैं इन सब से 
थोड़ा ऊपर उठ कर,
जब मुझे इन सब की 
या तो आदत हो जायेगी, 
या परवाह नहीं होगी, 
या फिर जब मैं 
वास्तव में खुश
होकर लिखूंगा,
वो दिन होगा, जब 
मैं किताब भी लिखूंगा 
पर,
आज वो दिन नहीं है,
आज वो दिन नहीं है।

Wednesday, 6 June 2018

निर्णय

एक बहुत कठिन चुनाव
करना पड़ेगा मुझे
और शायद तुम्हे भी,
शायद आज,
शायद कल,
या फिर शायद हर एक दिन।
एक बेहतर कल के लिए
आज शायद मटमैला हो,
पर साफ़ गगन तो
बादलों से भरे हुए
उस काले आसमां के
बरसने के बाद ही आता है।

या तो तुम मेरे इस
कड़वे सच का एक
आखिरी घूँट पी जाओ,
या फिर तुम चाहो तो
मीठे झूठ का मधुमेह
ले जी लो तुम।
मधु की वो बूँदें बहुत
मीठी तो लगेंगी,
पर मधुमेह तुम्हे वो
अंदर ही अंदर और
खोखला करता जाएगा।
निर्णय तुम्हारा है।

कहना तो बहुत कुछ चाहती हूँ
तुमसे और शायद खुद से भी,
तुम जब मुझसे मेरा हाथ
मांगते हो, तो मैं भी
एक पल के लिए ही सही
सब भुला कर तुम्हारे
साथ जीना चाहती हूँ,
तुम्हारे हाथों में हाथ डाले
बारिशों में भीगना चाहती हूँ,
तुम्हारे सिरहाने सर रखके
बेफिक्र सोना चाहती हूँ,
पर मैं ऐसे रिश्ते
नहीं बना नहीं सकती
जिनको मैं निभा ना सकूँ।  

Sunday, 27 May 2018

अकेले ही चल पड़ा

जिंदगी का ये जो सफर है,
उसमे हमेशा तुम्हे एक
चुनाव करना पड़ेगा,
किसी के साथ चलो
या फिर दूर तक चलो।

मैं दूर तक जाने की
तलब रखने वालों में से हूँ,
पर, मुझे अकेला चलना
भी अखरता है।
अकेले चलने की
आदत में, मैं
शून्यता की ओर चल पड़ा। 
वैसे तो मुझे तब कुछ
पता भी नहीं पड़ा,
मैं खेल के नियमानुसार
अकेले ही चल पड़ा।

कल शनिवार को
काली बदरी वाली शाम में,
मैं बिना छाता लिए
यूँ ही निकल पड़ा।
फिर, एकांत में पार्क
में बैठा सोचने लगा,
क्या अकेला चलना सही है ?
तो अंदर से आवाज़ आयी,
वो फिर कभी सोचना,
अभी सही वक़्त नहीं है,
तुम खुश हो अकेले।
फिर मैं खेल के नियमानुसार,
हमेशा की तरह
अकेले ही चल पड़ा।

वो लैंप पोस्ट की
पीली धुंधली बत्ती
मुझे जैसे सहला रही थी,
कोई सवाल करने वाला नहीं,
कोई जवाब देने वाला नहीं,
वो सुनसान सड़क जैसे
मेरे सपनों का जहाँ था।
मैं खुद में मगन,
हँसता, मुस्कुराता,
खेल के नियमानुसार,
हमेशा की तरह
फिर अकेले ही चल पड़ा। 

Wednesday, 23 May 2018

एक दिन सोचा

कल एक काम
बाकी रह गया था,
आज याद आया,
तो सोचा
चलो कर आते हैं।

तुम्हारे जाने के बाद,
जब घर साफ़ कर रहा था,
एक तस्वीर मिली,
मेरे जैसी शक्ल का कोई
इंसान हंस रहा था उसमे,
तो सोचा
चलो हंस आते हैं। 

लोग आते जाते
सवाल पूछा करते थे,
मैं बुत बना देखा करता,
किंकर्त्तव्यविमूढ़,
तो सोचा एक दिन कि
चलो जवाब दे आते हैं

कश्मकश में मैं
हर वक़्त उलझा रहता,
ये करते वक़्त कभी
वो कर बैठता,
और वो करते वक़्त
कुछ और सोचता,
तो सोचा फिर मैंने कि
चलो सब छोड़ आते हैं

बहुत भाग दौड़ की, 
बहुत कुछ देखा और सुना।
फिर एक दिन थक गया मैं,
एक लम्बी सांस ली,
थोड़ी देर ठहरा,
और सोचा,
चलो अब मर जाते हैं। 

Friday, 11 May 2018

इतना कह कर

कभी कभी सोचती हूँ कि
मैं भी कुछ लिखूँ, पर...
पर इतना कह कर
वो रुक जाती फिर।
मैं सोचता था कि वो शायद
उसके आगे भी कुछ कहेगी,
पर वो कुछ नहीं कहती,
वो रुक जाती फिर |

एक दिन फिर से उससे पूछा,
तो उसने कहा तुम मुझसे
अलग सोचते हो।
मैं जो कुछ भी कहती हूँ,
उससे तुम जो लिखते हो,
वो मेरी सोच से
बिलकुल ही अलग है,
वो मेरी कविता से
अलग होता है।
पर इतना कह कर,
वो रुक जाती फिर।

मैंने भी एक दिन उससे
आखिर कह दिया,
सबकी सोच अलग होती है,
ये मेरा तरीका है,
सब एक जैसा सोचेंगे तो
फिर वो रोमांच कहाँ ?
ये मेरी कल्पना है। 
मैंने सोचा और कुछ कहूँ
पर, इतना कह कर
मैं रुक गया फिर।

शब्दों से वो तुम्हारा
शह और मात का खेल खेलना,
मैं एकटकी लगाए
तुम्हे सुनना चाहता हूँ।
शब्दों से जैसे खेलती हो,
तुम्हे उसपर नाज़
तो जरूर होगा। 
इस पर इतरा कर, वो
रुक जाती फिर,
और इतना कह कर,
मैं भी रुक गया फिर। 

Saturday, 5 May 2018

गिनती

मुझे गिनती करने की लत है
वो पहला था
ये दूसरा है
वो तीसरा होगा
गिनती सीखी तो थी
पर गिनती गलत चीजों
की कर बैठा मैं

जब सावन आया
तो वो बोले हमसे
पहली बरसात है
भीगोगे नहीं इसमें ?
फिर दूसरी बरसात आती है
फिर तीसरी भी आयी
हर दफे वही बारिश होती है
एहसास अलग होता है थोड़ा
पर हम उसे गिनते हैं
गिनती करने की जो आदत है

हंसी का मुखौटा पहन कर तुम
गिनती के इस बाज़ार में आये
पहले वाले का पहलापन
ऐसे जकड़े बैठा था
कि दूसरे का दूसरापन
देखते उसे दूर ही कर दिया
वैसे दूसरा जो था, वो
अपने सरीखे पहला था

गिनती में मैंने सीखा था कि
पहले के बाद दूसरा आएगा
और दूसरे के बाद तीसरा
इसलिए गिनती गिनता गया
और आगे बढ़ता गया
ये जो गिनती करने की लत है
असल में, वो गलत है 

Sunday, 25 March 2018

क्या मज़ाक है

अरे ये क्या मज़ाक है
बेमतलब बेबाक सी
ये ज़िंदगी है जो
बस चली जा रही है
ये हवा है जो
बहे जा रही है
ये लब्ज़ हैं जो
खोये जा रहे हैं
अरे अरे अरे
ये क्या मज़ाक है

ज्येष्ठ-बैसाख की गर्मी
और ये सूरज आज
गीले आँखों को
सूखा रहा है
या सूखे बंज़र मन
को ये और भी
जला रहा है
कुछ पता ही नहीं
चल रहा मुझे
अरे देखो न
अरे क्या मज़ाक है

आज भी बांसुरी
तुम्हारी वहीं रखी है
काठ की उस बांसुरी
में दीमक लग गयी
तुमने उसकी हिफाज़त
करने के बजाय
नयी खरीद ली
अरे ये कैसा जूनून है
अरे ये क्या मज़ाक है 

Monday, 12 March 2018

कहीं खो गयी है वो

कहीं खो गयी है वो लौ,
दीये और लालटेन की बत्ती
जलाने वाली वो लौ
कहीं खो गयी शायद
मैं ढूंढता हूँ
उस एक लौ को,
वो लौ कहीं नहीं मिलती
बिना उस लौ के
एक अँधेरा सा लगता है,
वो लौ खो गयी कहीं

लौ नहीं है तो, अब मैं
सितारों भरे उस आसमान
के नीचे लेट जाता हूँ
अँधेरा किसको पसंद है,
उजाला उतना तो नहीं
जितना उस लौ से था
पर, कुछ न होने से
अच्छा कुछ होना है
बिना उस लौ के
एक अँधेरा सा लगता है,
वो लौ खो गयी कहीं

क्या वो लौ अब भी
उतनी ही जगमग होगी ?
क्या कहीं तूफां के झोंकों में
वो लौ अब भी जलती होगी ?
पर, वो लौ तो मैंने शायद
कभी जलाई ही नहीं
वो लौ जो मेरी
कभी थी ही नहीं
शायद जिसका वजूद नहीं
उसका खो जाना ही अच्छा है
वो लौ खो गयी कहीं
पर,
ठीक है,
ठीक है,
ठीक है। 

Saturday, 24 February 2018

कुछ तो गलत हो रहा

कुछ तो गलत हो रहा है,
तुम्हे तो सब पता है,
जान कर अनजान बनने की
तुम्हारी अदा मुझे मालूम है,
सच बताओ,
तुम्हे भी पता है ना,
कुछ तो गलत हो रहा |

वो जो दिख रहा,
उसके मायने नहीं,
और जो नहीं दिखा कभी,
उसके नाम पे झगड़ा हो रहा |
तुम्हे भी पता है ना,
कुछ तो गलत हो रहा |

हँसते कम हैं आजकल,
वक़्त बदल रहा,
हँसने को भी अब तू,
कसरत का नाम दे रहा |
तुम्हे भी पता है ना,
कुछ तो गलत हो रहा |

वहां तीसरे तल्ले पर,
सब कुछ शुरू से वापस
शुरू होने की एक क़वायद लिए
मैं सच्चाई की लाश को
ठिकाने लगा रहा |
तुम्हे तो पता ही होगा
क्या गलत हो रहा |

Wednesday, 21 February 2018

गुमशुदगी की रिपोर्ट

एक मिनट सर,
आपको थाने का
पता मालूम है क्या ?
एक रिपोर्ट लिखवानी है |
अच्छा, थाना पीछे रह गया ?
शुक्रिया, सही बात है
थाना तो पीछे छूट गया |

दरोगा साहेब, हमको इक
रपट लिखवानी है |
एक गुमशुदगी की
रपट लिख देंगे जरा
कौन गुम हो गया अब ?
कोई नाम, पता,
उम्र कुछ बताओ |

उम्र तो उसकी साहब
बहुत ज्यादा होगी,
करीबन करीबन सदियां |
पता तो नहीं मालूम उसका,
सोचा था हर जगह रहता होगा |

अरे क्या बकवास कर रहे हो ?
क्या नाम है उसका ?
इंसानियत नाम है साहब
इंसानियत के गुमशुदगी की
रिपोर्ट लिखवानी है जरा 

Sunday, 18 February 2018

मुझे जाना होगा

मुझे जाना होगा
सभी तो जाते हैं,
इसमें नया क्या है
ऐसे क्यूँ देख रही हो ?
तुम भी तो जाओगी एक दिन
सब जाते हैं कभी न कभी

दूर से दौड़ कर आने वाली
समंदर की बलखाती लहरें भी
तो जाती हैं वापस
कहाँ ही रुकते हैं वो
चट्टानों से टकरा उसे समझ
आता है शायद कि ये सारी
उम्र यहाँ नहीं रह सकती

पूरे साल बाद वापस आने वाली
वो बरसात भी तो जाती है
हाँ, वापस आती है वो, पर,
पर वो, वो वाली बरसात नहीं होती
उसमे तुम नहीं होती हो
उसमे मैं कभी अकेला होता हूँ,
तो कभी कोई और होता है

कभी तुमने क्यूँ नहीं पूछा कि
मैं अब तक क्यों रुका रहा ?
पर छोड़ो यार,
कोई गिला नहीं,
मुझे अब जाना है
बरसो गड्ढे में जमा हुआ पानी,
पानी नहीं रहता
वो गंदा हो जाता है 

Saturday, 10 February 2018

साथ नहीं रहेंगे

तुम रात बनना,
मैं दिन बनूँगा
हम दोनों कभी भी
एक साथ नहीं रहेंगे
पर, जब तुम जाने वाली होगी
और मैं आ रहा होऊंगा
या, जब तुम आने वाली होगी
और मैं जा रहा होऊंगा
वो शाम और भोर में
हम मिलेंगे जरूर, और
उस सन्नाटे में ऐसे मिलेंगे
कि, उससे सुन्दर शोर इस जहाँ ने
न पहले कभी सुना होगा
न पहले महसूस किया होगा

तुम ज़मीं बनना
मैं आसमा बनूँगा
हम दोनों के बीच
ज़मीन-ओ-आसमान  के
फासले होंगे
पर, क्षितिज पर
हम जरूर मिलेंगे
लोग हमारी मुलाक़ात को
देखेंगे, दंग रह जाएंगे
हम उस मुलाक़ात की
एक तस्वीर बनाएंगे फिर
ऐसी खुशनुमा तस्वीर जो
किसी ने कभी न सोची होगी
न किसी ने रंगी होगी

फिर, उस क्षितिज पर जब
वो डूबता हुआ सूरज
उगते हुए चाँद से मिलेगा
या, वो उगता हुआ सूरज
डूबते हुए चाँद से मिलेगा
और पूछेगा कैसी हो तुम?
बड़े वक़्त बाद मिलना हुआ
ये जहाँ तब खिल उठेगा
हम पल भर के लिए ऐसे मिलेंगे
पर हम दोनों कभी भी
साथ नहीं रहेंगे,
साथ नहीं रहेंगे |  

Wednesday, 7 February 2018

पसंद नहीं

मुझे मेरे नाम से मत पुकारो,
मुझे मेरा नाम पसंद नहीं
मेरे नाम के वो अक्षरों की
चुभती आवाज़ पसंद नहीं
वैसे तो मेरे घर के आगे मेरा नाम
लिखा है, मुझे मेरा घर पसंद नहीं
मेरी किताब के दाईं कोने पर
मेरा नाम लिख दिया मैंने,
मुझे मेरी किताब पसंद नहीं
नाम तो तुम्हारी चिट्ठी पर भी था
मेरा, पर मुझे अब तुम पसंद नहीं

जब शामियाने में बैठ गुजरे
कल के पन्ने पलट रहा था
तो मुझे एक मैं मिला
पर वो कोई और था
वो मैं नहीं था
नाम तो वही था मेरा
पर मैं अब मैं न था
वक़्त के साथ साथ
वक़्त की एक परत
चढ़ गयी थी मुझपे 
अब तो जैसे ऐसा था
कि मुझे मैं पसंद नहीं

ऋतू जब वसंत वाली थी
तो कलियाँ खिलने लगी थी
बगीचे में टिकोले भी आने लगे
पर बगीचे में कोई नहीं आया
मैं यूँ तो बगीचे का माली था
पर वो बगीचा खाली था
बरसो पहले लगाया वो झूला
सबा से आज भी झूल रहा था
मैं वहां कोने में बैठ चुपके से
अपना नाम भूल रहा था
बगीचा तो आज भी वहीँ है 
पर मुझे अब बगीचे में नहीं जाना
मुझे मेरा बगीचा पसंद नहीं

Saturday, 3 February 2018

'WH' words

What
When
Why
How
Which
Where
Who ????

Who is this,
Where it came from
Which turn will it take
How do I find it
Why is this happening
Till When will this happen
What is this exactly
These ‘WH’ words
always been strange

Hidden in plain sight
Making us run around
the busy city streets
And they enjoy there
sitting on the shining
rich looking leather sofas
Snickering at our pity
These ‘WH’ words
always been strange

Brings us plethora of
unanswerable questions
And then they make us
dance on its own tune
Right in front of world
on this very stage
Like a puppet, being tilted
sometimes to the right,
and sometimes left
These ‘WH’ words
always been strange

Friday, 2 February 2018

क-क् वाले शब्द

क्या,
कब,
क्यूँ,
कैसे,
किधर,
कहाँ,
कौन ????

कौन है भला
कहाँ से आया
किधर को ले जाएगा
कैसे तलाशूँ उसको
क्यूँ हो रहा ये जो भी है
कब तक चलेगा ऐसा
क्या है ये आखिर
ये क-क् वाले शब्द
भी बड़े अजीब होते हैं

जाने कहाँ छुप कर
हमें बेतहाशा शहर के
हर कोने तक भगाते हैं
और खुद उस चमड़े के
रईस से सोफे पर बैठ
कहकहे लगाते हैं
ये क-क् वाले शब्द
भी बड़े अजीब होते हैं

जो अपने अंदर सवालों
का जत्था भर लाते हैं
और फिर मंच पर विराज
कठपुतलियों के माफ़िक़
नचाते है बस हमको
कभी दाईं ओर
तो कभी बाईं ओर
ये क-क् वाले शब्द
भी बड़े अजीब होते हैं 

Wednesday, 31 January 2018

बीच में

जिंदगी के इस पार और
जिंदगी के उस पार, उन
दो छोरों के बीच एक
शहर ऐसा भी था,
जो भरी भीड़ में
सबसे छुपा हुआ था
वो शहर जहाँ गए तो सभी थे,
पर जा कोई भी न पाया था
जिंदगी जी तो सभी ने थी
पर जी कोई न पाया था

तुम्हे पाने के उस पार, और
तुम्हे खो देने के इस पार
संग रहने की क़वायद हमने भी
कई मर्तबा कर ली
पाया तुम्हे तो कितनी देर तक था
पर पा कभी नहीं पाया था
तुम्हे पाने और ना पाने के बीच
कुछ हमने भी शायद पा लिया था

सूरज की उस चमक और
बादल के उस हलके अंधेर
के बीच, एक समां और भी था
क्षणभंगुर से गरज के साथ
वो बिजली चमकी तो थी
पर चमक फिर भी न पायी थी
वो बिजली जो दिखी तो सबको थी
पर शायद उसे देख कोई न पाया था

Saturday, 20 January 2018

नींद

मैं नींद हूँ और मेरे भी
अपने अलग मिज़ाज़ हैं 
अपनी मर्जी का
मालिकाना हक़ है मुझे
मेरा मन जब करे
तब मैं आउंगी
ना मन करे तो
जो उखाड़ना है उखाड़ लो
नहीं आना मतलब
मुझे नहीं आना

अभी तो तुम जवान हो
मेरे बारे में मत सोचो
तुम सपनो का जाल बुनते रहो
बिना मेरे भी सपने आते हैं
मेरे वाले सपने जो हैं ना
वो गीले साबुन के बुलबुले हैं
हवा लगते ही फूट जायेंगे
सपना वो देखो जो तुम्हें 
मेरी याद ना आने दे
मेरी ख्वाहिश मत करो
मैंने बहुत दुनिया देखी है
मैं नींद हूँ

मैं बता रही हूँ
डरो मुझसे, डरो
एक दिन पूरी शिद्दत से
बोरिया बिस्तर लेकर आउंगी
हमेशा के लिए साथ रहने
फिर न कोई रास्ता होगा
और ना कोई रहगुजर
आखिरी नींद होगी तुम्हारी
बहुत लम्बी नींद
ऐसी गहरी नींद, जो तुम
जगाये न जागो
मैं वो नींद भी हूँ