Sunday, 27 May 2018

अकेले ही चल पड़ा

जिंदगी का ये जो सफर है,
उसमे हमेशा तुम्हे एक
चुनाव करना पड़ेगा,
किसी के साथ चलो
या फिर दूर तक चलो।

मैं दूर तक जाने की
तलब रखने वालों में से हूँ,
पर, मुझे अकेला चलना
भी अखरता है।
अकेले चलने की
आदत में, मैं
शून्यता की ओर चल पड़ा। 
वैसे तो मुझे तब कुछ
पता भी नहीं पड़ा,
मैं खेल के नियमानुसार
अकेले ही चल पड़ा।

कल शनिवार को
काली बदरी वाली शाम में,
मैं बिना छाता लिए
यूँ ही निकल पड़ा।
फिर, एकांत में पार्क
में बैठा सोचने लगा,
क्या अकेला चलना सही है ?
तो अंदर से आवाज़ आयी,
वो फिर कभी सोचना,
अभी सही वक़्त नहीं है,
तुम खुश हो अकेले।
फिर मैं खेल के नियमानुसार,
हमेशा की तरह
अकेले ही चल पड़ा।

वो लैंप पोस्ट की
पीली धुंधली बत्ती
मुझे जैसे सहला रही थी,
कोई सवाल करने वाला नहीं,
कोई जवाब देने वाला नहीं,
वो सुनसान सड़क जैसे
मेरे सपनों का जहाँ था।
मैं खुद में मगन,
हँसता, मुस्कुराता,
खेल के नियमानुसार,
हमेशा की तरह
फिर अकेले ही चल पड़ा। 

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