Friday, 11 May 2018

इतना कह कर

कभी कभी सोचती हूँ कि
मैं भी कुछ लिखूँ, पर...
पर इतना कह कर
वो रुक जाती फिर।
मैं सोचता था कि वो शायद
उसके आगे भी कुछ कहेगी,
पर वो कुछ नहीं कहती,
वो रुक जाती फिर |

एक दिन फिर से उससे पूछा,
तो उसने कहा तुम मुझसे
अलग सोचते हो।
मैं जो कुछ भी कहती हूँ,
उससे तुम जो लिखते हो,
वो मेरी सोच से
बिलकुल ही अलग है,
वो मेरी कविता से
अलग होता है।
पर इतना कह कर,
वो रुक जाती फिर।

मैंने भी एक दिन उससे
आखिर कह दिया,
सबकी सोच अलग होती है,
ये मेरा तरीका है,
सब एक जैसा सोचेंगे तो
फिर वो रोमांच कहाँ ?
ये मेरी कल्पना है। 
मैंने सोचा और कुछ कहूँ
पर, इतना कह कर
मैं रुक गया फिर।

शब्दों से वो तुम्हारा
शह और मात का खेल खेलना,
मैं एकटकी लगाए
तुम्हे सुनना चाहता हूँ।
शब्दों से जैसे खेलती हो,
तुम्हे उसपर नाज़
तो जरूर होगा। 
इस पर इतरा कर, वो
रुक जाती फिर,
और इतना कह कर,
मैं भी रुक गया फिर। 

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